रविवार, 26 अप्रैल 2009

मंज़िल

कभी हँस दिया हँसा दिया ,कभी रुला रुला दिया ।
गो नाम तेरे दर्ज थे ,तूने तो सब भुला दिया ।

मिले थे बाँह खोलकर ,कभी गले लगा लिया ।
कभी तो दर से बेकदर , दर बदर बना दिया ।

कभी तो महकी रात की ,रानी सी दिल में सिमट गए ।
कभी तो चाँद चांदनी को , बेवफा बना दिया ।

कभी करार कौल का ,वादों का लंबा दौर था ।
कभी टूटने को बेकरार ,सब कुछ तो सुन सुना दिया ।

ये मत समझ की फ़िर वही ,मैं कर रहा कोई गिला ।
दुनिया से कह दिया सिला , खंजर था मैंने चला दिया ।

चाहा तुझे था बेपनाह , मान कर अटल मेरा ।
बेनियाज़ हो के ख़ुद को , दर पे तेरे बिछा दिया ।

बताओ तो कि कौन हो , राहों के मेरे हमसफ़र ।
तूने तो इस सफर को ही मंजिल मेरी बना दिया ।

8 टिप्‍पणियां:

  1. Raj bhai,bahut sunder ghazal ke liye aabhaaar,umda hai aapki ghazal. likhte rahiye aur ummeed jagate rahiye.
    aapka
    Dr.Bhoopendra

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  2. ये मत समझ की फ़िर वही ,मैं कर रहा कोई गिला ।
    दुनिया से कह दिया सिला , खंजर था मैंने चला दिया .

    waah! bahut khuub!


    bahut achchee gazal kahi hai.
    sabhi sher pasand aaye.

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  3. बताओ तो कि कौन हो , राहों के मेरे हमसफ़र ।
    तूने तो इस सफर को ही मंजिल मेरी बना दिया ।

    लाजवाब शेर.

    सम्पूर्ण ग़ज़ल सुन्दर.

    आभार.

    चन्द्र मोहन गुप्त

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  4. कभी करार कौल का ,वादों का लंबा दौर था ।
    कभी टूटने को बेकरार ,सब कुछ तो सुन सुना दिया ।
    बहुत ही सुन्दर रचना... आप मेरे ब्लौग पर आये इसके लिये एक बार फिर धन्यवाद.

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  5. कभी करार कौल का ,वादों का लंबा दौर था ।
    कभी टूटने को बेकरार ,सब कुछ तो सुन सुना दिया ।
    bahut sundr lainen hain .

    जवाब देंहटाएं

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