मंगलवार, 3 नवंबर 2009

आंखमिचौली ........!

आज पूनम का चाँद ..........
फिर निकला
कुछ ऊपर तक उठ आया हुआ
कुछ बदलियाँ ,कुछ कुहासा ,कुछ ठंढ
फिर भी तुमसा ही
मन में समाया हुआ
मैं भीतर से ,
बंद कांच की खिड़की से
बस निहारता उसको जैसे
नटखट नटखट जैसे कि तुम 
और तुम्हारी आंखमिचौली


पतझड़ से पत्तों रहित
पेडों की टहनियों से
छन कर आता चाँद
कर रहा है 
वैसे ही 
जैसे दूर बसी तुम
और तुम्हारी ही यादों की  ......
वैसी ही कुछ आंखमिचौली


मन बोझिल बोझिल
असह्य सी उदासी
और उदास उदास सी
फ़ैली हुयी दूर दूर तक
करती लुका छिपी
गुमसुम सी चांदनी
तृप्ति अतृप्ति का खेल
हाँ वह भी खेलती
धरती से  आंखमिचौली


मैं अकेला
बस निहारता .....
सोच सोच कि तुम भी
निहार लो शायद
वैसा ही ,उतना ही, ऐसा ही, यही पूरा चाँद
भीगी भीगी सी ऐसी ही
भरपूर फ़ैली चांदनी में  
हो जाये कुछ तो
मन से मन का संवाद
महसूस न हो यह एकान्तिका
हो जाये कुछ आंखमिचौली 


सोच कर ही भर जाती है
मन में एक खुमारी
कि तुम्हारी भी आँखें
ऐसा ही कुछ निहारतीं
चलती हुयी अनगिनत यादों के साथ
हर पल छिन जिया हुआ हमारा साथ
और दूर दूर तक फ़ैली असमर्थता
कैसे थाम लूं ऐसे में ,ऐसे ही
जैसे थाम लेता था
तुम्हारा
अपने हाँथों में हाँथ


क्या करुँ दूरियों का
उमड़ घुमड़ आती यादों का 
मन कों किसी कविता में उडेल दूँ.......?
शब्द बनते हैं मिटते हैं
वह भी खेल रहें हो जैसे 
जैसे तुम सी आंखमिचौली


क्या करुँ ?
निर्विकल्प 
मन को कविता बना दूँ ?
या
कविता को ही मन ........?
हो तो तुम ही
दोनों में
खेलती  सी
निरंतर एक आँखमिचौली !