रविवार, 26 अप्रैल 2009

मंज़िल

कभी हँस दिया हँसा दिया ,कभी रुला रुला दिया ।
गो नाम तेरे दर्ज थे ,तूने तो सब भुला दिया ।

मिले थे बाँह खोलकर ,कभी गले लगा लिया ।
कभी तो दर से बेकदर , दर बदर बना दिया ।

कभी तो महकी रात की ,रानी सी दिल में सिमट गए ।
कभी तो चाँद चांदनी को , बेवफा बना दिया ।

कभी करार कौल का ,वादों का लंबा दौर था ।
कभी टूटने को बेकरार ,सब कुछ तो सुन सुना दिया ।

ये मत समझ की फ़िर वही ,मैं कर रहा कोई गिला ।
दुनिया से कह दिया सिला , खंजर था मैंने चला दिया ।

चाहा तुझे था बेपनाह , मान कर अटल मेरा ।
बेनियाज़ हो के ख़ुद को , दर पे तेरे बिछा दिया ।

बताओ तो कि कौन हो , राहों के मेरे हमसफ़र ।
तूने तो इस सफर को ही मंजिल मेरी बना दिया ।