आत्म कथ्य । यह पयाम भी है और पैगाम भी !
उस दोस्त के नाम , जो ज़िंदगी को लाश में बदल देना चाहता है ;........ या मरकर या जीकर । उसी अनजाने दोस्त के लिए जिंदगी का मेरा अपना फलसफा ...............एक 'ललकार' की उम्मीद में ।
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जो कि उसमे है !
कभी हार कर ललकार कर ललकार कुछ हारा तो है ।
मुन्तजिर है मौत तो क्या , सब जिया सारा तो है । ले हवाएँ चल पड़ीं जिस ओर,उड़ता चल वहीं ।
गर्द के हक में जहां आकाश ये सारा तो है ।
बाँट लेगा कौन तेरी जिंदगी को मौत को ।
पूछ ख़ुद से फ़िर बता इन्सान सा प्यारा तो है ।
बचपना क्या ,क्या जवानी , जिंदगी की शाम क्या ।
जो मिला गर बद कहीं ,कुछ कुछ को पुचकारा तो है । करने के पहले कोई शिकवा , 'खुदी' से पूछ ले ।
देख तुझसे भी जियादा वक़्त का मारा तो है ।
क्या लगा था दांव पर जो ,रो रहा दुनिया से यूँ ।
तुझसे भी बदबख्त ,जीते जी कोई हारा तो है ।
मत समझ के दांव कोई जिसपे तू लग जाएगा ।
जीत कैसी ,हार क्या , ये खेल ही सारा तो है ।
पाल मरने का भरम सच में ना तू मर पायेगा ।
गर अगरचे जान ले आशिक जहान सारा तो है ।
तुझको लाया वो जमीन पर एक दिन ले जाएगा ।
कह सकेगा ? वक़्त को थोड़ा सा ललकारा तो है ।