शनिवार, 8 जनवरी 2011

???

कहाँ तो तय था किया हमसफ़र कोई होगा
कहाँ तो सोचा था कि राह बन गयी मंजिल
कहाँ तो ख्वाब से लम्हों में ज़िन्दगी आयी
कहाँ तो ख्वाब से भी डरने लगा है अब दिल

ये शिकायत नहीं है दोस्त बस अफसाना है
बिना किसी भी अंजाम का फसाना  है
जानता हूँ कि किस्मतें नहीं सँवरती यूँ
जानता भी हूँ कि मंजिलें भी नहीं मिलती यूँ

जानता ये भी हूँ कि मजबूर भी हैं हम औ तुम
जानता ये भी हूँ कि तुम भी तो नहीं हो बस तुम
जानता हूँ कि बस मैं भी हूँ इन्सां ही कोई
जानता ये भी हूँ कि औरत ही नहीं माँ भी हो तुम

हो गये दूर तो मजबूरियाँ रही होंगी
हिस्से में अपने भी गमगिनियाँ रही होंगी
एक तमन्ना के सहारे से भले मिल बैठे
एक दुनियाँ भी कहीं बीच में रही होगी

ये वो दुनियाँ है जहाँ कितने तो समझौते हैं
ये वो दुनियाँ है जहाँ लोग बडे सस्ते हैं
मोल मेरा ना किया तुमने ना मैंने जाना
हम सभी लोग कहीं किस्मतों में बसते हैं

भूल पाना कभी होता है जरा मुश्किल भी
पर ये दुनियाँ है कि क्या क्या नहीं भुला देती
आयीं थी तुम भी कोई एक तमन्ना बन कर
तो तमन्नाओं में एक ख्वाब भी बसा देतीं

अब ना कोई राह है मंजिल ना तमन्ना कोई
अब तो मैं खुद भी नहीं अपना नज़र आता हूँ
अब तो गुमनाम हँसीं ख्वाब किनारे में कई
देख कर उनको मैं अनजान सा हो जाता हूँ

फिर भी तू हो जहाँ जैसे भी हो जिस हालत में
अपनी उम्मीद का हिस्सा नहीं मालूम है ये
मेरी झोली में नहीं सपने तो क्या लेकिन फिर भी
तुझको मैं अपनी दुआओं में कहीं पाता हूँ

क्या भुलाऊँ तुझे या भूल भी जाने को कहूँ
इतनी लम्बी तो मुलाकात भी किस्मत में न थी
चंद लम्हों की जो सौगात मिली थी उसमे
अपने ख्वाबों की एक मजार सा कुछ पाता हूँ 

ज़िन्दगी को भी नए गीत मैं सुनाता हूँ
मौत के नाम पर कुछ झूम रोज जाता हूँ 
चंद प्याले कहीं कुछ जाम सहारा बनते
रोज ही एक दिन किश्तों में चुका जाता हूँ .

कैसे कह दूँ कि तुझे भूल सा गया अब हूँ
कैसे मानूं कि हाँ तूने भी भुलाया मुझको
याद तो आती है शायद तुझे भी आती हो
पर मगर वक़्त का सवाल है तुझको मुझको

हाँ उसी वक्त के हवाले हूँ मैं भी औ तू भी
हाँ उसी वक्त के हाथों में हैं मजबूर मैं भी औ तू भी
छोड़ दे खुद को औ मुझको भी उसी वक्त के हाँथ
वो अगर चाहेगा तो शायद हों कभी फिर हम साथ

तो उसी वक्त के कुछ ख्वाब बुने हम फिर से .............??